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लेख

The Mysterious Ailment of Rupi Baskey उपन्यास में आदिवासी स्त्री चिंतन के स्वर

कुलदीप कुमार पाण्डेय


आदिवासी समाज सामूहिकता और समानता में विश्वास रखता है। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व आदिवासी समाज में स्त्रियाँ सभ्य और सुसंस्कृत कहे जाने वाले समाज से अधिक स्वतंत्र होती थीं। लेकिन अंग्रेजों के आने के पश्चात् धीरे-धीरे उस सामूहिकता का टूटन हुआ। उस सामूहिकता के टूटन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था मजबूत हुई। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को और भी मजबूत करने का विधान अंग्रेजों ने राजस्व की नीति लागू करने के पश्चात कर दिया। अंग्रेजों के पहले आदिवासी समाज में सम्पत्ति नाम की कोई अवधारणा नहीं थी। लेकिन "कालान्तर में जब अंग्रेजों ने राजस्व की नई नीति बनाई और जमीन के पट्टे जमींदारों के नाम लिखे, समस्या तब पैदा हुई। अब चूँकि जमीनें पुरुषों के नाम से लिखी गई, तो उसमें किसी भी आदिवासी मुखिया या मांझी-हाड़ाम या प्रधान ने औरतों के नाम खाते में यह कहकर नहीं चढ़ने दिए कि ये तो दूसरे के घर चली जाएगी। पितृसत्तात्मक व्यवस्था के ठेकेदारों ने अपने इस तर्क को मजबूत बनाने के लिए इसका मिथकीकरण किया और माना जाने लगा कि पूर्वजों की प्रेतात्माओं को अपने उत्तराधिकारियों से अन्न जल मिलता है, लड़की पराया धन है, वह जब शादी के बाद चली जाएगी तो उन्हें अन्न-जल कौन देगा? इसलिए पुरुषों को ही उत्तराधिकारी बनाया गया ताकि उन प्रेतात्माओं को हमेशा अन्न-जल मिलता रहे। अंग्रेजी के जनजातीय साहित्य में अग्रणी लेखक हांसदा सोवेंद्र शेखर ने अपने उपन्यास The Mysterious Ailment of Rupi Baskey में जनजातीय स्त्री की बदलती स्थिति को दर्शाया है. जो अध्याय रूप में जनजातीय स्त्री पर भूमंडलीकरण, सभ्यता तथा शहरीकरण के प्रभाव को दर्शाता है. जिससे बहस और स्त्री चिंतन के अनेक प्रश्न खड़े होते हैं

कुंजी शब्द :जनजातीय स्त्री, स्त्री चिंतन, सभ्यता, हाशिए, भूमंडलीकरण, शहरीकरण।

साहित्य और समाज का गहरा नाता होता है। साहित्यकार समाज की विविध गतिविधियों को साहित्य के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाता है। अतः जीवन की सौंधी महक साहित्य में मिलती है। किंतु ऐसा नहीं होता कि साहित्यकार केवल उस सौंधी महक को ही अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता हो, वह तो समाज की पीड़ा और तकलीफों को भी व्यक्त करने के साथ-साथ वहाँ की दुर्गंध को भी वाणी प्रदान करता है और साथ ही इस बात की भी आशा करता है कि उसके प्रयास से समाज का प्रत्येक जन अपनी पीड़ा को समझ कर उनके निवारण का प्रयास कर सकेगा और वह दुर्गंध धीरे-धीरे सुगंध में तब्दील हो सकेगी। मुंशी प्रेमचन्द का मत है कि -साहित्य जीवन की आलोचना है। चाहे वह निबंध के रूप में हो चाहे कहानियों के या काव्य के, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।

समय के बदलाव के साथ-साथ साहित्य के मान, मूल्य और विषय भी बदलते रहते हैं। रचनाकार अपने समय का साक्षी होता है और वह अपने आस-पास घट रही घटनाओं को सूक्ष्म रूप से अवलोकित करता है। आज का साहित्य जीवन के यथार्थ का साहित्य है। समय के बदलाव को समझते हुए आज से कुछ वर्षों पूर्व कलमकार ने नारी जीवन के यथार्थ को परखने का प्रयास किया और परिणामस्वरूप स्त्री विमर्श नामक एक बड़ी संकल्पना का जन्म हुआ। कई-कई रचनाकारों ने इस विषय पर कलम चलाकर इस विमर्श को प्रचारित, प्रसारित एवं स्थापित किया। इसके बाद साहित्य जगत में एक नई संकल्पना का जन्म हुआ और वह थी दलित विमर्श। जिसके माध्यम से दलित जीवन के यथार्थ और उनकी समस्याओं को वाणी प्रदान की गई। आज ऐसी ही एक नई संकल्पना को लेकर साहित्य जगत में चर्चा जोरों पर है और वह संकल्पना है, आदिवासी विमर्श।

मनुष्य की प्रतिभा और सामर्थ्य की अनन्त संभावनाओं का द्वार अपने अनुभव के लिए खुला रखकर सप्रयत्न उसके वर्तमान को बदलने में जो संलग्न होता है, वही समकालीनता का धर्म निर्वाह करता है। आज का रचनाकार अपने जीवन के समकालीन मुद्दों पर कलम चलाकर समकालीनता के दायित्व का निर्वहन कर रहा है। आज समकालीन हिन्दी कविता और उपन्यास लेखन के माध्यम से आदिवासी जीवन के दुःख-दर्द को मुखरित करने का व्यापक प्रयास किया जा रहा है। आज हिंदी जगत में ऐसे कई उपन्यास रचे जा चुके हैं जो आदिवासी जीवन पर केंद्रित हैं। इस प्रकार का लेखन आज से नहीं वर्षों पहले से चल रहा है। हाँ, आज इसकी संख्या में वृद्धि हुई है। आदिवासी जीवन पर केंद्रित हिन्दी के चर्चित उपन्यासों की बात की जाए तो रांगेय राघव का कब तक पुकारूं, राजेंद्र अवस्थी का सूरज किरण की छांव, मैत्रेयी पुष्पा का अल्मा कबूतरी, वीरेंद्र जैन का डूब, पार, भगवानदास मोरवाल का रेत, काला पहाड़, संजीव का धार, जंगल जहाँ शुरु होता है, सावधान नीचे आग है, रणेंद्र का ग्लोबल गाँव के देवता, हिमांशु जोशी का महासागर, महुआ माजी का मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ आदि के नाम मस्तिष्क पटल पर उभरते हैं।

दुनिया की आधी आबादी कही जाने वाली स्त्री जाति हमारे देश में परंपरागत रूप से हाशिये का जीवन जीने के लिए बाध्य है। वर्तमान में चल पड़े विमर्शों में स्त्री विमर्श के माध्यम से भारतीय स्त्री हाशिये उलांघती नज़र आती है। अपनी अस्मिता और अस्तित्व के सवाल का जवाब ढूँढ़ती हुई गल्ली से दिल्ली तक छलांग लगा रही है। किंतु पुरूषों के चंगुल से अपनी मुक्ति को तलाशती इन चंद महिलाओं ने अपनी लेखनी को अपने तक ही सीमित कर लिया है। हाशिए के समाज की महिलाओं की ओर उनका ध्यान नहीं गया। नतीज़तन दलित विमर्श की भी अनदेखी के कारण दलित स्त्री-लेखन उभर कर सामने आया। यहाँ तक पहुँचकर भी स्त्री समाज का एक हिस्सा उपेक्षित ही रह जाता है। पुरूषों के समान हकदार कही जाने वाली आदिवासी स्त्री क्या अपनी अस्मिता और अस्तित्व के सवाल से मुक्त है? कहने के लिए तो 'मुक्ति' शब्द बड़ा आसान है पर जलने का दर्द तो राख़ ही जानती है। हां, बात सही है कि आदिवासी स्त्री कभी अपने समाज के पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती थी। बाहरी सभ्य समाज के घुसपैठ के साथ ही आदिवासी स्त्रियों का हक भी छीन लिया गया।

अंग्रेजों के आगमन से पूर्व आदिवासी समाज में सभी कार्य स्त्री और पुरूष समान रूप से करते थे, संपत्ति का अधिकार समान होता था। वह उनके आगमन के पश्चात् संपत्ति के अधिकार से स्त्रियों को वंचित रखने तथा पुरूष वर्चस्व की दृष्टि से उन्हें हल चलाने,घर का छप्पर छाने या तीर-धनुष चलाने जैसे कामों से वर्जित कर दिया गया। आदिवासी स्त्री एक ओर वर्तमान बाज़ारवाद के कारण मुख्यधारा के समाज से शोषित है तो दूसरी ओर स्त्री होने के कारण अपने ही समाज में शोषित है। इस दोहरे शोषण के दर्द में भी वह अपनी अस्मिता और अस्तित्व को नहीं भूलना चाहती है। आदिवासी स्त्री अपनी संस्कृति को बनाए रखना चाहती है। उसे वही जंगल, नदी, पहाड़ अच्छे लगते हैं जो अपने बाबा के घर में हैं। वह अंदर ही अंदर सहमी हुई है कि जहाँ उसे ब्याहा जाएगा क्या वहाँ यह सबकुछ मिल पाएगा? क्या उसे प्यार करने वाला पति मिल पाएगा? आज वह जानने लगी है उसके खिलाफ होने वाले षड्यंत्र को। चाहे वह आंतरिक हो या बाहरी।

हंसदा सोवेंद्र शेखर का उपन्यास THE MYSTERIOUS AILMENT OF RUPI BASKEY उपन्यास में जनजातीय स्त्री के अस्तित्व और अस्मिता के खतरों को दर्शाया गया है। इन्हीं बाहरी लोगों की घुसपैठ की वज़ह से हो रहे दैहिक शोषण के दर्द को उभरा है। हंसदा स्वयं संथाल जनजाति से संबंध रखते हैं वर्तमान में आप रांची में चिकित्सक के पद पर नियुक्त हैं जिससे जमींन से जुड़े लोगों से जुड़े रहने का सुनहरा अवसर इन्हें प्राप्त है। इस उपन्यास में मूल नायिका रूपी के माध्यम से जनजातीय स्त्री की व्यथा को दर्शाया है कि किस प्रकार रूपी अपनी प्रकृति को खोने से अपनी अस्मिता को ही खो बैठती है. वह उस समुन्द्र में नहीं जी पाती जहाँ सभ्यता, संस्कृति का झूठा छलावा है। वह खुल कर स्वाभाविकता के साथ जीती थी। घर-बाहर, खेत आदि सभी संभालती थी चिड़ियाँ की भाँती उड़ती फिरती थी। उसकी शादी गाँव के मुखिया के घर होती है लेकिन कोई यह नहीं जानता कि मुखिया के पढ़े लिखे बेटे और रूपी के बीच सभ्य व असभ्य का ही अंतर है। रूपी जो बोलने को असभ्य है परन्तु वास्तव में रूपी ही सभ्य अधिक है।

हम देख सकते हैं कि किस प्रकार गैर-आदिवासी समाज धीरे-धीरे शिरकत कर पहले आदिवासी समाज को उजाड़ने का और अब उनके स्त्रियों के देह के साथ खिलवाड़ करने का काम कर रहा है। आज आदिवासियों के जंगल उजड़ गए। उनका विस्थापन शहरों के किनारे झोपड़ पट्टियों में हुआ। वहां भी आदिवासी स्त्री अपने ही पुरूष का मार सहकर परिवार का पालन-पोषण करने के लिए तत्पर है। रोजगार के लिए वह दिल्ली जैसे शहरो में जाती है तो काम के नाम पर तन को गिरवी रखने की बात की जाती है। रूपी भी कुछ इसी तरह शादी के बाद शहर आती है जहाँ का मैदानी इलाका उसे रास नहीं आता। वहां वह उस श्रम से वंचित हो गई जो वह चावल के खेत में किया करती थी। इस उपन्यास में कई स्त्री पात्रो के अलग-अलग संघर्ष लेखक ने दर्शाया है। रूपी की देवरानी दुलारी उसके पति की इच्छा के विरुद्ध विवाह के कारण तथा पूर्व वैवाहिक संबंधों के कारण अपने पति द्वारा मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित की जाती है। यहाँ विवाह की संस्था का व आदिवासियों में ही जातिप्रथा का बोध लेखक करवाता है। इनकी स्वयं वर-वधु चुनने की सुन्दर प्रथा इस प्रकार के विवाह में तब्दील हो गई है, जिसमे भी अंततः औरत ही पिसती है।

हम देख सकते हैं कि किस प्रकार गैर-आदिवासी समाज धीरे-धीरे शिरकत कर पहले आदिवासी समाज को उजाड़ने का और अब उनके स्त्रियों के देह के साथ खिलवाड़ करने का काम कर रहा है। आज आदिवासियों के जंगल उजड़ गए। उनका विस्थापन शहरों के किनारे झोपड़ पट्टियों में हुआ। वहां भी आदिवासी स्त्री अपने ही पुरूष का मार सहकर परिवार का पालन-पोषण करने के लिए तत्पर है। पुरूष समाज को अखड़ता है स्त्रियों का स्त्री दृष्टि से चीज़ों को देखना, उनका उँची आवाज में बोलना, बड़बड़ाना। स्त्रियों का मर्यादा में रहना, मीठा बोलना, सहनशील होना ही उन्हें पसंद है। नहीं तो उन्हें डर है कि वह हमारे खिलाफ़ विद्रोह कर हमारे एकछत्र अधिकार को छीन लेंगी। उँची आवाज़ में बोलना तो दूर की बात है, सीमोन द बोउवार कहती हैं- 'स्त्री का बड़बड़ाना भी उसका विरोध दर्ज करना है।' स्त्री जान गयी है कि हमारे स्वतंत्र होकर जीने से तथा पुरूषों के समान मिलकर कार्य करने से पुरूषों को आपत्ति है। और अब पुरूष दृष्टि के अनुसार चलना भी संभव नहीं है

पुरूष समाज की अखड़ता है स्त्रियों का स्त्री दृष्टि से चीज़ों को देखना, उनका उँची आवाज में बोलना, बड़बड़ाना। स्त्रियों का मर्यादा में रहना, मीठा बोलना, सहनशील होना ही उन्हें पसंद है। नहीं तो उन्हें डर है कि वह हमारे खिलाफ़ विद्रोह कर हमारे एकछत्र अधिकार को छीन लेंगी। उँची आवाज़ में बोलना तो दूर की बात है, सीमोन द बोउवार कहती हैं- 'स्त्री का बड़बड़ाना भी उसका विरोध दर्ज करना है।' स्त्री जान गयी है कि हमारे स्वतंत्र होकर जीने से तथा पुरूषों के समान मिलकर कार्य करने से पुरूषों को आपत्ति है। और अब पुरूष दृष्टि के अनुसार चलना भी संभव नहीं है।इस समाज में स्त्री पुरुषों के साथ मिलकर खेत में बोआई भी करती है साथ ही उसका घर भी संभालती है, जिसका उसे श्रमिक भी नहीं मिलता। इतना ही नहीं बल्कि रूपी अपने पहले बच्चे को जन्म खेत पर बोआई करते समय ही देती है।

इस उपन्यास का दुलारी चरित्र आदिवासी समाज की स्त्रियों को अन्याय और शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करती हैं। आज स्त्री जग गयी है। आदिवासी समाज की भी आँखे खूल गयी है। अब वह बोलने से व आवाज उठाने से कतई नहीं कतराती हैं। जरूरत है तो सिर्फ शासन और समाज के सक्रिय सहयोग की। नहीं तो उसे एक बार फिर से 'सिनगी दई' बनते देर नहीं लगेगी। दुलारी आवाज उठाकर अपने पति को वश में जरुर कर लेती है पर सम्पूर्ण गाँव के लिये वह दहिनी बन जाती है। रूपी जो अपने पति के अन्य औरत के साथ संबंध से व्यथित है वह भी दुलारी जैसी औरतों को पसंद नहीं करती क्योंकि उसके अनुसार आदमी शरीफ होते हैं, परायी औरतें ही उन पर डोरे डाल कर उन्हें पथ भ्रमित कर देती हैं जैसे गुरुबारी ने रूपी के पति को किया। दुलारी ने भी उसी विद्या का उपयोग करके अपने पति की प्रेमिका को ख़त्म किया तथा अपने पति को वश में किया। अधिकतर देखा जाता है कि समाज उन औरतों को दायाँ करार देता है जो पुरुष के वश में नहीं होतीं। विडम्बना यह है कि स्वतंत्र कही जाने वाली आदिवासी महिलाओं की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार है।

मनुष्य की प्रतिभा और सामर्थ्य की अनन्त संभावनाओं का द्वार अपने अनुभव के लिए खुला रखकर सप्रयत्न उसके वर्तमान को बदलने में जो संलग्न होता है, वही समकालीनता का धर्म निर्वाह करता है और आज का रचनाकार अपने जीवन के समकालीन मुद्दों पर कलम चलाकर समकालीनता के दायित्व का निर्वहन कर रहा है। आज उपन्यास लेखन के माध्यम से आदिवासी स्त्री जीवन के दुःख-दर्द को मुखरित करने का व्यापक प्रयास किया जा रहा है। आज साहित्य जगत में ऐसे कई उपन्यास रचे जा चुके हैं जो आदिवासी स्त्री जीवन पर केंद्रित हैं। हंसदा पुरुष लेखक होकर भी सहानुभूति के सभी मापदंडों को पार करते है। उपन्यास में रहस्यमयी रोग से ग्रसित मूल नायिका को यह रोग उसके प्राकर्तिक जीवन से इतर शहरी जीवन देता है। इसके आलावा स्वयं एक औरत उसके इस रोग का कारण है जो हमेशा रूपी क हीन दर्शाती है। रूपी अपने ही नजर में इतनी हीन हो जाती है यह भी भूल जाती है कि वह अपने गाँव की सबसे कर्मठ महिला थी।

आदिवासी समाज आज भी जोर देकर कहता है कि वह सदियों से प्रकृति और अपने पुरखों का पूजक रहा है वह प्रकृति पूजा को अपना धर्म मानता रहा है। सदियों से अपनी प्रकृति सम्मत सर्वोच्च मानव संस्कृति और सभ्यता का वाहक रहा है। वह अपनी बोली भाषा पर सदियों से अटल रहा है आज भी है,किन्तु समाज का धार्मिक, सामाजिक,सांस्कृतिक और साहित्यों में एकरूपता तथा प्रचार-प्रसार के अभाव में धीरे-धीरे सबकुछ विलुप्त होता जा रहा है। साहित्य की कमी ने हमारे सारे समृद्धि और विकास के रास्तों को अवरुद्ध कर दिया।

इस उपन्यास में लेखक ने दो स्त्री पात्र कुछ इस प्रकार दर्शाए हैं कि वह स्वतन्त्र रूप से जीती हैं काम करने जाती है, उनके प्रेम संबंध भी हैं पर गाँव वाले उन्हें बुरा व बच्चलन मानते हैं। डेला खुलकर जीती है, पुटकी भी उससे आकर्षित होती है पर क्योंकि वह सरदार की बेटी है वह इस जीवन को नहीं जी पाती। अतः उसका शादी के बाद हाल बुरा होता है अपने पिता की इच्छा से ब्याह तो करती है परन्तु उसे हांडी की लत लग जाती है वह दिन रात हांडी पिते हुए डेला के साथ बिठाये पलों को याद करती है क्योंकि वह भी उसी तरह की जिंदगी जीना चाहती थी। कोई पुटकी के मनोविज्ञान को समझ नहीं पाता वह क्यों ऐसी हुई? पुटकी ऐसी जिंदगी की चाह रखकर भी अपने पुत्र दोसो का प्रेम विवाह इसलिये नहीं होने देती क्योंकि दोसो द्वारा पसंद की गई लड़की करिया असभ्य है। यहाँ हम देख सकते हैं कि आदिवासी स्त्री को अनेक दंश भोगने पड़ते है। एक विडम्बना स्त्रियों की रही है कि औरत औरत के दुःख को नहीं समझ पाती क्योंकि उसकी आंखों पर पुरुषसत्ता का चश्मा चढा होता है।

निष्कर्तः इस उपन्यास में आदिवासी स्त्री का चित्रण मनोवैज्ञानिक ढंग से करते हुए लेखक ने उन सभी संघर्षों को सामने रखा है जो एक आदिवासी स्त्री को उठाने पड़ते है। किस प्रकार जनजातीय समाज में भी स्त्री चहारदीवारी में बंध गई? कुलीनता का यूटोपिया खड़ा कर दिया गया और उनसे उनकी स्वाधीनता छीन ली गई। किसी ने विरोध किया तो उसे डायन करार दिया गया। सभ्यता-असभ्यता के झूठे दिखावे का भी दंश उन्हें ही भोगना पड़ा।


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